Tuesday, July 12, 2016

सैलरी बढ़ाने के मुद्दे पर मोदी सरकार ने इसलिए दांव पर लगा दी अपनी लोकप्रियता...

Dear Comrades,

जब केंद्र सरकार ने 7वें वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू किया तो आंकड़ों पर माथापच्ची हुई। लेकिन ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो ये मानते हैं कि इस घोषणा के पीछे अगले साल होने वाले उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव हैं। इसमें दोष अनुमानों का नहीं, अनुभवों का है। मनमोहन सिंह की यूपीए-1 सरकार ने छठे वेतन आयोग को जब दो साल की देरी के बाद साल 2008में लागू किया था तब मूल वेतन में आयोग की सिफारिश की तुलना में दो गुनी बढ़ोतरी कर दी थी। संभवतः यह देरी का पुरस्कार हो, लेकिन साल 2009 के लोकसभा चुनावों में यूपीए-1, विशेषकर कांग्रेस का गठबंधनी बहुमत सुधर गया। यह भी संयोग नहीं है कि यूपीए-2 में मनमोहन सरकार ने सातवें वेतन आयोग का गठन फरवरी 2014 में तब किया जब चुनाव दो महीने दूर थे।लेकिन मोदी सरकार ने सिफारिशों के अनुरूप केंद्रीय कर्मचारियों के मूल वेतन में 14.27 प्रतिशत की बढ़ोतरी की, जो बीते सात दशकों में सबसे कम है। तो क्या मोदी सरकार ने लोकप्रियता पर वित्तीय अनुशासन को तरजीह देने का जोखिम उठाया है?

इसका जवाब हां, तो नहीं है लेकिन यह एक ऐसा दौर जरूर है जब प्रधानमंत्री की अपील पर देश के एक करोड़ से अधिक लोगों ने एलपीजी सब्सिडी छोड़ी है। आम गैरसरकारी लोगों की प्रतिक्रियाएं देखें तो पता चलता है कि वे वेतन आयोग की सिफारिशों से असंतुष्ट होने वाले कर्मचारियों के संगठन द्वारा हड़ताल के आह्वान से निराश हैं। यह तकनीकी बात है कि वेतन आयोग कीसिफारिशें दस सालों पर आती हैं लेकिन महंगाई भत्ता तो हर साल दो बार नियमित तौर पर बढ़ाया जाता ही है, जिससे वेतन बढ़ता रहता है। नई घोषणा में सरकारी कर्मचारियों को ताजा वेतन बढ़ोतरी से इतर ग्रेच्युटी को 20 लाख रुपये तक करने और नए मकान खरीदने के लिए 25 लाख रुपये तक निकालने की सुविधा मिली है लेकिन असंतुष्ट कर्मचारियों के संगठन की मांग यहभी है कि कार्यकाल के पूरे दौर में कम से कम पांच प्रमोशन सुनिश्चित किए जाएं और न्यूनतम वेतन 26 हजार रुपये हो। हालांकि ये मांगें कमजोर दलीलों पर आधारित हैं।


कर्मचारियों के संगठनों ने न्यूनतम और अधिकतम वेतन के बीच अंतर को कम करने की बात कही है। यह समाजवादी विचारों के हिसाब से एक आदर्श स्थिति हो सकती है लेकिन इसके उलट हकीकत यह है कि सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों के बीच आय की असमानता 1990 के दशक के बाद बदस्तूर तेजी से और चिंताजनक रूप से बढ़ी है। आय की असमानता के तर्कअलग-अलग पदों पर चयनित होने के लिए जरूरी शैक्षणिक योग्यता और पद में निहित जिम्मेदारियों की अनदेखी करते हैं। केंद्र व राज्य सरकारें अपने कर्मचारियों के लिए सामाजिक सुरक्षा के मानकों पर कई दूसरी राहतों का ऐलान करती रहती हैं। लेकिन, जिस देश में केंद्रीय कर्मचारियों का सालाना वेतन औसत ( साल 2012-13 के आधार पर ) 3.92 लाख रुपये हो, वहां वेतनबढ़ोतरी को लेकर कर्मचारी संगठनों का असंतोष काफी कम वेतन और सुविधाओं पर काम करने वाले गैर-सरकारी, निजी क्षेत्र के कामगारों और किसानी कर रहे करोड़ों लोगों के प्रति असंवेदनशीलता को जताता है। निचले कर्मचारियों और ऊपरी अधिकारियों के वेतन की असमानता यदि एक पक्ष है तो दूसरा पक्ष यह भी है कि निचले और मध्यम स्तर पर (जो कुल केंद्रीय कर्मचारियोंमें लगभग 80 प्रतिशत है), निजी क्षेत्र में समान पद पर काम करने वालों की तुलना में सरकारी कर्मचारियों को भारी बढ़त है। दिलचस्प यह है कि शीर्ष पदों पर यह अंतर निजी क्षेत्र के पक्ष में है।

आईआईएम के एक अध्ययन ने बताया है कि सरकारी क्षेत्र के प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षकों का औसत वेतन निजी क्षेत्र के औसत क्रमशः 15 हजार और 22.5 हजार रुपये की तुलना में, 40 हजार व 50 हजार रुपये है। यही हालत तमाम तरह की चिकित्सकीय सेवाओं के लिए होने वाली नियुक्तियों और इंजीनियरों के वेतन की निजी-सरकारी तुलना में है। क्या यह अंतर समाज मेंआय और अवसर की असमानता नहीं बढ़ाता है? एक सरकारी चपरासी बनने के लिए आवेदन करने वाले पीएचडी धारकों की हकीकत में एक पहलू यह है कि हमारी पीएचडी की गुणवत्ता सही नहीं है या फिर उसके समकक्ष मौके नहीं है लेकिन क्या सरकारी क्षेत्र में तुलनात्मक रूप से अधिक वेतन और कम जिम्मेदारियों का गणित कोई कारक नहीं है?

वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने से केंद्रीय राजस्व पर पड़ने वाले बोझ का आंकड़ा 1.02 लाख करोड़ रुपये है और यदि वेतन बिल का राजस्व व्यय के साथ अनुपात देखें तो यह इस सदी में साल 2000-01 में अधिकतम 12.2 प्रतिशत के बाद दूसरा सबसे अधिक, 10.6 प्रतिशत है। यूपीए के दौर में यह अनुपात 6-9 प्रतिशत के बीच ही रहा था। यानी, मौजूदा समय में अधिकराजस्व हासिल करने के स्रोतों पर दबाव अधिक है। उधर बताया गया कि भारत में केंद्रीय कर्मचारियों की संख्या यूएसए की तुलना में लगभग 20 फीसदी है, यानी कि केंद्र सरकार को अपने कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने के लिए नए रोजगारों का ऐलान करना चाहिए। यह राजनीति के लिए अच्छा नारा हो सकता है लेकिन क्या किसी ने इस बात की जहमत उठाई है कि यूएसए केफेडरल कर्मचारियों की तुलना में भारतीय कर्मचारियों की उत्पादकता और सामाजिक जिम्मेदारी के मानकों पर प्रदर्शन कैसा है? ऐसा नहीं है क्योंकि यह लोकप्रिय सियासत नहीं है।

साल 2005 में भी प्रशासनिक सुधार आयोग ने सरकारी कर्मियों की वेतन बढ़ोतरी और पदोन्नति के लिए उनके कामकाज व प्रदर्शन को आधार बनाने का सुझाव दिया था। मौजूदा केंद्र सरकार ने इस दिशा में आगे बढ़ने के संकेत दिए हैं जो स्वागतयोग्य है जिससे प्रशासनिक तंत्र अधिक पारदर्शी और जिम्मेदार बनेगा और सरकार के योजनागत लक्ष्य बेहतर तरीके से क्रियान्वित होसकेंगे। तथ्य यह भी है कि सरकार के वेतन बढ़ोतरी से इस वित्तीय वर्ष में ही 45 हजार करोड़ रुपये बाजार में तमाम मदों में खर्च व बचत-निवेश की शक्ल में.
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